वेदों की ओर लौटो का उद्धोष करने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती का सम्पूर्ण चिन्तन वेदों से अनुप्रणीत है। सूत्र रुप
में सभी ज्ञान—विज्ञान की शिक्षा वेदों में प्राप्त है किन्तु महाभारत के पश्चात् भारतीय एवं विदेशी भाष्यकारों द्वारा
स्वमन्तव्य के लिए अनेक शब्दों का भ्रामक अर्थ कर वेद की व्यापकता एवं प्राचीनता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया। इस
विषम समस्या का समाधान महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्षग्रन्थों में पाया तथा इसी का अनुसरण कर अपना वेदभाष्य
किया। महर्षि दयानन्द ने वैदिक सिद्धान्तों का मूल ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त के महर्षियों के मन्तव्यों को स्वीकार
किया। सभी दु:खों का मूल अविद्या व अशिक्षा है।
यह सभी को ज्ञात है कि मैकाले ने जो शिक्षा व्यवस्था स्थापित की, वह केवल मानव को मसीन बनाने के लिए है,
जिसे आज अनुभव भी किया जा रहा है। स्वतन्त्र भारत में महर्षि दयानन्द की शिक्षा नीति स्वीकार की जाती तो निश्चित रुप
से वैदिक विज्ञान के आधार पर अब तक हम विश्व का नेतृत्व करते किन्तु शोक है…। शिक्षा की परिभाषा करते हुए महर्षि
लिखते हैं— ‘जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें, उसको शिक्षा
कहते हैं।’ ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए महर्षि ने अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश (तृतीय
समुल्लास), ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (पठन—पाठन विषय), संस्कार-विधि (वेदारम्भ संस्कार) में पठन—पाठन विधि का
स्पष्ट उल्लेख किया है। तृतीय समुल्लास में महर्षि लिखते हैं कि ‘अब जो—जो पढ़ना—पढ़ाना है वह—वह अच्छी प्रकार
परीक्षा करके होना योग्य है। परीक्षा पांच प्रकार से होती है।’ इन पांच प्रकार की परीक्षणविधि को बताते हुए न्याय, वैशेषिक,
सांख्य, महाभाष्य आदि ग्रन्थों के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। तदनन्तर ‘अथ पठन—पाठनविधि:’ लिखकर पढ़ने—पढ़ाने का
प्रकार बताया है। इसमें सर्वप्रथम पाणिनिमुनिकृत (वर्णोच्चारण) शिक्षा से आरम्भ किया है। अष्टाध्यायी, धातुपाठ,
उणादिकोष, महाभाष्य, निघण्टु, निरुक्त, छन्दशास्त्र, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत
विदुरनीति, दर्शन, उपनिषद् आदि ग्रन्थों को पढ़ने—पढ़ाने का प्रकार लिखा है। इसी सन्दर्भ में महर्षि लिखते हैं कि पूर्ण
वैयाकरण होकर वैदिक व लौकिक शब्दों का व्याकरण से पुन: अन्य शास्त्रों को शीघ्र सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं किन्तु जैसा
बड़ा परिश्रम व्याकरण में होता है वैसा श्रम अन्य शास्त्रों में करना नहीं पड़ता। वे आगे लिखते हैं कि—महर्षि लोगों का जहॉं
तक हो वहॉं तक सुगम और जिस के ग्रहण करने में समय थोड़ा लगे इस प्रकार का होता है….आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है
जैसा एक गोता लगाना बहुमूल्य मोतियों का पाना। महर्षि दयानन्द सरस्वती आर्ष ग्रन्थों के प्रबल पोषक थे। वे इसी प्रकारण
में लिखते हैं—’ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिये पढ़ना चाहिये कि वे बड़े विद्वान् सब शास्त्रवित् और धर्मात्मा थे’। महर्षि
दयानन्द अपनी पठन—पाठन विधि में परा—अपरा (ब्रह्म विज्ञान), वैद्यकशास्त्र (चिकित्साविज्ञान), राजधर्म
(राजनीतिविज्ञान), भूगर्भविज्ञान, शिल्पविज्ञान, संगीत—कलाविज्ञान, गणितशास्त्रविज्ञान, यान्त्रिकी विज्ञान आदि का
समावेश किया है।
महर्षि दयानन्द जन—जन तक आर्षग्रन्थों को पढ़ने—पढ़ाने के लिये प्रेरित करते थे। आर्ष परम्परा के संरक्षक पण्डित
युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास’ नवम अध्याय में वेदांगप्रकाश की रचना का
प्रयोजन प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि — ‘महर्षि ने अपने कार्यकाल में संस्कृत भाषा के प्रचार और उन्नति के लिये महान्
प्रयत्न किया था। उन्हीं के प्रेरणा से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति संस्कृत सीखने के लिए लालायित हो उठे थे। उन्होंने स्वामी
जी से संस्कृत सीखने के लिए उपयोगी ग्रन्थों की रचना की प्रार्थना की। उसी के फलस्वरूप ऋषि ने संस्कृतवाक्यप्रबोध रचा
और वेदांग प्रकाश के विविध भागों की रचना कराई।’ जन सामान्य तक के लिए आर्ष ग्रन्थों को सुगमता से पढ़ने के लिए
वेदांग प्रकाश को 14 भाग में प्रस्तुत किया। इन ग्रन्थों को पढ़ जनसामान्य वेद को सुगमता से पढ़ सकता है। आर्य समाज का
मूल ध्येय वेदों का प्रचार—प्रसार करना है। आर्य समाज काकडवाड़ी मुम्बई के स्थापना के अवसर पर आर्यजनों का आग्रह था
कि महर्षि दयानन्द आचार्य पद पर आसीन हों थे किन्तु महर्षि ने अस्वीकार कर केवल सदस्य बनना स्वीकार किया। महर्षि
दयानन्द का नाम सदस्यता पंजिका में ‘31 वें नम्बर’ पर है, जिसमें ‘कामधन्धा — वेदप्रचार’ लिखा है। इससे स्पष्ट हो
जाना चाहिए कि महर्षि दयानन्द वेदप्रचार को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे।
महर्षि दयानन्द के पश्चात् प्रथम पंक्ति के नेतृत्व ने इस संकल्प के लिए अपने जीवन की आहुति दी। महर्षि के स्मारक के रूप
में डी.ए.वी. की स्थापना हुयी किन्तु आधुनिकता के चकाचौन्ध ने उसे घेर लिया। महर्षि के मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिये
महात्मा मुंशीराम, पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जैसे महापुरुषों ने अपने अथक परिश्रम व सर्वस्व दान कर सत्यार्थप्रकाश में वर्णित
पठन—पाठन विधि का अनुसरण करने के लिए गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। इतिहास ने पण्डित इन्द्र विद्यावाचस्पति,
पण्डित चन्द्रमणि, आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री, पण्डित उदयवीर शास्त्री, स्वामी ब्रह्ममुनि, पण्डित क्षितीज वेदालंकार, पण्डित
बुद्धदेव विद्यालंकार, पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार, पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री, आचार्य राजवीर शास्त्री, आचार्य
सुदर्शनदेव, आचार्य विजयपाल विद्यावारिधि,पण्डित विशुद्धानन्द, आचार्य वेदव्रत शास्त्री, आचार्य वेदपाल सुनीत प्रभृति
विद्वानों को देखा।
इसी परम्परा का अनुसरण कर अनेके गुरुकुलों की स्थापना कर स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी आत्मानन्द, स्वामी सच्चिदानन्द
योगी, स्वामी ओमानन्द, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी व्रतानन्द, पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक,
आचार्य बलदेव, स्वामी त्यागानन्द, स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी ब्रह्मदेव, स्वामी धर्मेश्वरानन्द आदि महापुरुषों ने इस परम्परा
का संवर्धन किया, जिसे अद्यावधि स्वामी धर्मानन्द, स्वामी प्रणवानन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी सत्यपति, आचार्य
आनन्द प्रकाश, आचार्य विजयपाल, स्वामी ऋतस्पति, आचार्या सुमेधा, आचार्या सुकामा, आचार्या सूर्यादेवी, आचार्या धारणा,
आचार्या नन्दिता, आचार्या प्रियंवदा, आचार्य उदयन मीमांसक, आचार्य प्रदीप, आचार्य ओम्प्रकाश आदि आचार्य संरक्षित कर
रहे हैं।
आर्य समाज का आंगन वैदिक विद्वानों की किलकारियों से चहंकता—महकता रहा है। आर्य समाज की छावनी से वैदिक
विद्वान् धीरे—धीरे जा रहें हैं, उनकी पूर्ति व महर्षि की आज्ञा का पालन उनकी निर्दिष्ट पठन—पाठन व्यवस्था से ही सम्भव
है। इस आधुनिकता की दौड़ में महर्षि निर्दिष्ट पठन—पाठन का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। वैदिक वाड्मय में उपस्थित
ज्ञान—विज्ञान के अनुसन्धान के लिए ठोस कार्य करना चाहिए किन्तु खेद है…। पहले आर्यसमाजों, अनेक प्रान्तीय सभाओं
तथा सार्वदेशिक सभा के माध्यम से आर्षग्रन्थों का प्रचार—प्रसार, प्रकाशन व अनुसन्धान किया जाता रहा। अब आर्ष
पठन—पाठन विधि को सुरक्षित रखना भी एक चुनौती बन गयी है।
आप भवन बना सकते हैं, आधुनिक विज्ञान के संसाधन भी जुटा सकते हैं किन्तु इस दौड़ में आर्यसमाज की मूल
आत्मतत्त्व वेदों का प्रचार—प्रचार कैसे करोगे? आत्मा के बिना शरीर की क्या गति होती है, यह सभी जानते हैं। डॉक्टर,
इंजीनियर, अधिवक्ता, आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि को बनाने वाली अनेक संस्थायें कार्य कर रहीं हैं। सम्भव हो तो ऐसे
डॉक्टर, इंजीनियर, अधिवक्ता, आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि का वैदिक वाड्मय से कैसे परिचित करायें, इसपर कार्य करना
आवश्यक है। हमारे पूर्वजों ने न्यायमूर्ति गंगाप्रसाद, पण्डित श्याम कृष्ण वर्मा, पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय, पण्डित मंशाराम
वैदिक तोप, श्री हरविलास शारदा आदि जैसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। कन्हीं आधुनिकता का अनुसरण करने में अन्धे
होकर डी.ए.वी.(पी.जी.) कॉलेज देहरादून के संस्कृतविभाग के ठीक सामने स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति लग जाये और हम
देखते रह जायें ऐसा न हो। अत: महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित पठन—पाठन विधि का संरक्षण व संवर्धन
आवश्यक है और यह कार्य गुरुकुलों से ही सम्भव है।
डॉ. सोमदेव शास्त्री, वैदिक मिशन मुम्बई