गुरुकुलीय परम्परा विश्व की सबसे प्राचीनतम परम्परा है। जिसके द्वारा भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में
निरन्तर नवीन शैक्षणिक व वैज्ञानिक तथ्यों पर अनुसन्धानपरक कार्य होता रहा है। समस्त वैदिक वाङ्मय की
उत्पत्ति में भी गुरुकुलीय परम्परा का ही योगदान है, क्योंकि एकान्त, शान्त, वन्यवातावरण में ऋषियों ने अपने
शिष्यों के साथ गम्भीर चिन्तन व मनन कर जो निःश्रेयस व अभ्युदय के लिए परम हितकर था, उसी का सूत्ररूप में
विन्यास वैदिक वाङ्मय में किया है। वैदिक वाङ्मय के चिन्तन से लाभान्वित होकर के ही समस्त विश्व ने भारत
को विश्वगुरु माना। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरुकुलीय परम्परा के कारण ही भारत विश्व का ज्ञानदाता
बना।
          इस प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का पुनः उन्नयन करने के लिए अनेक महापुरुषों ने परम पुरुषार्थ
किया था। इस शृंखला में महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती का योगदान
अविस्मरणीय है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित सत्यार्थ प्रकाश में जो शिक्षा व्यवस्था निर्दिष्ट की गयी है,
उस शिक्षा पद्धति का अनुसरण कर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार की स्थापना करके अनेक
ऐसे स्नातकों का निर्माण किया, जो वेद, दर्शन, उपनिषद्, व्याकरण आदि शास्त्रों के परम विद्वान् हुए। उनके अद्भुत
ज्ञान के प्रशंसक भारतीय मनीषी ही नहीं अपितु विदेशी विद्वान् भी थे। उसी गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का सम्पोषण
करते हुए भारत में अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई, जहां से सहस्रशः वैदिक विद्वान् निकलकर अपनी अर्जित
योग्यता से वेद, उपनिषद्, योग आदि का ज्ञान विश्व में वितरित कर रहे हैं। अतः यह तथ्य पूर्णतः स्पष्ट है कि
वर्तमान में प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की राशि की सुरक्षा व प्रचार-प्रसार का कार्य यह गुरुकुल शिक्षा पद्धति द्वारा हो
रहा है। अतः इस अद्वितीय शिक्षा परम्परा का विकास व सम्पोषण अनिवार्य हो जाता है।
             ‘आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना और अनार्ष ग्रन्थों का
पढ़ना जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना’ (सत्यार्थ प्रकाश) महर्षि दयानन्द सरस्वती के इस उपदेश को
चरितार्थ करना, आर्ष-ग्रन्थों की अध्ययन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखना एवं मानव मात्र का कल्याण गुरुकुलीय
आर्ष परम्परा से ही सम्भव है, इन उदात्त भावनाओं से परिपूर्ण होकर भारत की राजधानी दिल्ली में सन् १९३४ में
स्वामी सच्चिदानन्द योगी जी ने श्रीमद्दयानन्द वेद विद्यालय नाम से गुरुकुल की स्थापना की। जो अब वटवृक्ष के
सदृश अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त करते हुए श्रीमद्दयानन्द वेदार्ष-महाविद्यालय-न्यास (संक्षिप्त नाम आर्ष-
न्यास) के रूप में पल्लवित व पुष्पित हो रहा है। वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में ८ शाखाओं एवं अनेक
उपक्रमों के साथ यह आर्ष-न्यास कार्य कर रहा है।
               वेद भगवान् भी कहते है कि ‘‘प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः’’ अर्थात् ज्ञानरूपी तन्तु का छेदन मत करो, इसी
पवित्र भावना से प्रेरित होकर हम सबने यह संकल्प लिया है कि जैसे नाम वैसा काम वाली कहावत के अनुरूप
हमारे अपने इस विद्याकेन्द्र से आर्षत्व कभी खत्म न होने पावे। श्रीमद् दयानन्द वेद विद्यालय से हमने दौड़
आरम्भ की और श्रीमद् दयानन्द वेदार्ष महाविद्यालय न्यास तथा इससे आगे ही अनन्त तक बढ़ते रहें, यही ईश्वर
से प्रार्थना है। यह सब आप सभी सहयोगियों के सहयोग से ही सम्भव हो सकेगा। आप सभी का सहयोग निरन्तर
हमें प्राप्त होता रहे यही कामना है।