पुस्तकालय

पुस्तक ज्ञान-विज्ञान की अक्षय निधि है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में विचारों को सम्प्रेषित करने का सरलतम साधन पुस्तक है । प्राचीन-अर्वाचीन, पौरस्त्य-पाश्चात्य, दाक्षिणात्य-उदीच्य तथा समस्त विश्व के दार्शनिकों विचारकों एवं लेखकों के विचार आदि से वर्तमान तक पुस्तकों से ही लभ्य है। गुरू केवल दिशानिर्देश कर मार्गदर्शन कराता है परन्तु पुस्तक व्यक्ति को आजीवन अभिप्रेरित करती है। प्राचीन वैदिक वाङ्मय आज हमारे समक्ष उपलब्ध हैं जिसका प्रबलतम मुख्य हेतु पुस्तक है। आज ज्ञान के अजस्र प्रवाह को यदि हम अक्षय करना चाहते है तो हमें वह ज्ञान पुस्तकाकार मे लाना होता है जिस कारण से पुस्तक की उपादेयता अनवरत परिवर्धित हो जाती है। छात्रों के बौद्धिक स्तर एवं स्वाध्याय की परम्परा के सतत विकास हेतु आर्ष-न्यास ने अपनी प्रत्येक शाखाओं में बृहत् पुस्तकालय के निर्माण करने का प्रयत्न किया है। अमूल्य वैदिक ज्ञान की धरोहर को पुस्तकालय में सुरक्षित करने तथा छात्रों को नवीन ज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य से पुस्तकालय का निर्माण कराया गया है। विद्यार्थियों, अध्यापकों, शोधार्थियों तथा स्वाध्यायशील सज्जनों के लिए दुर्लभ पुस्तकों का संग्रह पुस्तकालयों में किया गया है। वेद, दर्शन, उपनिषद्, आरण्यकग्रन्थ, संस्कृतसाहित्य, हिन्दीसाहित्य, अंग्रेजीसाहित्य,  महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित ग्रन्थ तथा अनेकविध उत्कृष्ट शोधप्रबन्धों का समन्वय पुस्तकालयों में किया गया है।

पुस्तकालयों के निर्माण के साथ-साथ वाचनालय का भी निर्माण किया गया है। स्वाध्यायशील पुरुषों के स्वाध्याय में किंचिन्मात्र भी बाधा न हो, इसी उद्देश्य से वाचनालयों का र्निमाण किया गया है। स्वाध्यायान्मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न हो इसी लक्ष्य की प्रप्ति के लिए पुस्तकालयों एवं वाचनालयों का निर्माण किया गया है।